News web media Uttarakhand : लोको पायलट को ये कैसे पता चलता है कि ट्रेन को कितने की स्पीड पर लेकर आगे जाना है. आपने देखा ही होगा कि कई बार ट्रेन अचानक तेज चलने लगती है और फिर थोड़ी ही देर में बिलकुल धीमी हो जाती है. वैसे तो इसमें सिग्नल के ग्रीन, येलो या रेड होने का अहम /योगदान होता है. लेकिन फिर भी एक सवाल मन में रह जाता है कि ट्रेन की एग्जेक्ट स्पीड आखिर कैसे तय होती है. बहुत कम ही लोग इस बारे में जानते होंगे कि आखिर ट्रेन की अधिकतम स्पीड लोको पायलट कैसे तय करता है.
मुख्यत: 2 बातों पर निर्भर करता है कि कोई ट्रेन किसी सेक्शन में अधिकतम कितने की स्पीड से चलेगी. ये दोनों ही बातें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. सबसे पहले ट्रेन की स्पीड इस बात से इस बात पर निर्भर करती है कि उस सेक्शन में अधिकतम कितनी गति से चलने की अनुमति दी गई है. मान लीजिए किसी सेक्शन में ट्रेन की अधिकतम स्पीड 90 किलोमीटर प्रति घंटा ही हो सकती है. तो ट्रेन ज्यादा से ज्यादा उतनी स्पीड तक ही चलेगी. भले ही ट्रेन की खुद की अधिकतम स्पीड 130 किलोमीटर प्रति घंटा ही क्यों न हो. इस बारे में सारी जानकारी लोको पायलट को ट्रेन ले जाने से पहले टाइम टेबल में दी जाती है
ट्रेन की खुद की स्पीड
दूसरा फैक्टर होता है ट्रेन की खुद की अधिकतम स्पीड. अगर किसी सेक्शन की अनुमति प्राप्त अधिकतम स्पीड 130 किलोमीटर है लेकिन ट्रेन की अपनी सर्वोच्च स्पीड केवल 90 किलोमीटर प्रति घंटा है तो फिर वह ट्रेन उतनी ही गति से चल पाएगाी. ट्रेन की स्पीड को कब अधिकतम और न्यूनतम पर ले जाना है यह सिग्नल से पता चलता है. ग्रीन सिग्नल होने पर ट्रेन फुल स्पीड से निकल सकती है. वहीं, येलो सिग्नल का मतलब होता है कि स्पीड को घटा दें और अगले सिग्नल पर स्टॉप (रेड सिग्नल) के लिए तैयार रहें.
येलो सिग्नल पर कितनी गिरानी होती है स्पीड
भारतीय रेलवे के अनुसार, जहां ऑटोमैटिक सिग्नल काम कर रहे होते हैं वहां पीला सिग्नल देखते ही लोको पायलट को स्पीड 30 किलोमीटर प्रति घंटे घटा देनी चाहिए. उसे तब तक ट्रेन को उसी स्पीड पर चलाना चाहिए जब तक की आगे सिग्नल ग्रीन नहीं मिल जाता. अगर धुंध व कोहरा है तो ऑटोमैटिक सिग्नल वाले रास्ते पर ट्रेन की स्पीड ग्रीन सिग्नल होने पर भी 60 किलोमीटर प्रति घंटे से अधिक नहीं होनी चाहिए.